Sunday, November 8, 2009

आख़िर हम इन्सान हें ना ......

रेलगाडी की रफ़्तार समय की मशीन की तरह हें ,
जो बिना रुके चलता रहता और चलता रहता हें ।......(१)

हम भी मुशाफिर हें ,
कभी इधर , कभी उधर से ,
रेलगाडी सवारी का लुफ्त उठाते हें ।...... (२ )

ना खुशी , ना गम ,
जिन्दगी की पटरी मैं,
भटकते भटकते गुम होकर ,
शामिल होते हें , एक अजनवी बनकर ।
रेलगाडी मैं रोज , एसे ही पसिंजर मिल जाते हें ,
जो गुम होकर , एक सहर से दुसरे सहर पहंच जाते हें । ......(३ )

ना पता, ना घर ,
ये मजबूरी जिन्दगी , ख़ुद को कहाँ से कहाँ तक ले आता हें ।
जीने के लिए दो वक्ती की रोटी चाहिए ,
सोने के लिए विस्तर चाहिए ,
आख़िर करे भी किया करे,
ख़ुद को तो छोडिये , बचो को तो पालना हें ना । .......(४ )

कभी मन्दिर , कभी मस्जीद ,
कभी गुरुद्वारा, कभी ट्राफीक सिग्नाल ,
पिस्ता हें जिन्दगी ,जीने के लिए,
आमिर लोगो की झूटे खा कर ।........(५ )

एक मुशाफिर कहता हें-
उनको और उनके बचो को देख कर ,
दर्द होता हें मुझे ,
सायद मेरे बचे भी , एसे ही जिन्दगी जी पाते । .....(६ )

दर्द होता हें मुझे ,
कियों की, उनकी खुशी एक तरफ ,
मेरे बचों की दुःख एक तरफ,
रब भी केसे ना इन्साफ करता हें ना । .....(७)

अमीरों के तरफ खुशी की भरमार ,
और , गरिवों की झोली मैं सिर्फ़ गम और गम ।
रोज पिस कर , जिन्दगी से रूठ जाता हूँ ,
गरीवी से तंग अगया हूँ ,
आखिर भगवान् ने, ये जिन्दगी कियों दिया ,
हर जगह से किया ठोकर खाने के लिए । .......(८ )

ये सोच के विच ,
जब मेरे बोचों के तरफ नज़र डालता हूँ ,
तब मुझे मजबूर करता हें , जीने के लिए ।
वह सिर्फ़....
उनके खुशियाँ के लिए ,
उनके चेहरे पर मुस्कान लाने के लिए ,
और , उनके भविष्य के लिए । ......(९ )

मुशाफिर फ़िर कहता हें -
अपनी जिमिदारियों को छोड़ नही सकते,
अपनी कर्तब्यों को भूल नही सकते ,
आखिर , हम इन्सान हें ना । .......(१०)



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